Holi 2025: वो भी क्या दिन थे, जब महीना भर पहले बनती थीं टोलियां, होली के रंग में रंग जाता था बचपन
Holi 2025: Those were the days when groups used to form a month in advance, childhood used to get painted in the colours of Holi

बुजुर्गों ने साझा किए बचपन की होली के अनुभव, बोले- त्योहार से पहले ही महक उठते थे घर, रंग और पकवान दोनों का उत्साह था अलग
Holi 2025: बैतूल। होली का त्योहार आते ही पुराने दिनों की यादें ताजा हो जाती हैं। बुजुर्गों के चेहरे पर बचपन की होली की बातें करते हुए आज भी वही चमक दिखाई देती है, जो उन दिनों होली के रंग में डूबने के बाद नजर आती थी। बुजुर्गों।ने अपने समय की होली के अनुभव साझा किए। किसी ने रंगों की मस्ती बताई, तो किसी ने पकवानों की खुशबू का जिक्र किया। सभी की जुबां पर एक ही बात थी- वो भी क्या दिन थे!
महीना भर पहले बनती थीं टोलियां, चंदा इकट्ठा कर खरीदे जाते थे रंग और पिचकारी
वन विभाग से सेवानिवृत्त रामचरण साहू ने बताया कि बचपन में होली का इंतजार इतना होता था कि एक महीने पहले ही टोलियां बन जाती थीं। बच्चे मिलकर चंदा इकट्ठा करते थे और उससे रंग, गुलाल और पिचकारी खरीदी जाती थी। गांव और मोहल्लों में घूम-घूमकर होली की तैयारियां होती थीं। घरों में कंडे और लकड़ियां इकट्ठी की जाती थीं, जिससे होलिका दहन की तैयारी पूरी की जाती थी।
सेवानिवृत्त शिक्षक शिवचरण हजारे ने कहा कि होली का असली मजा तब था, जब दोस्तों के साथ पहले ही तय कर लिया जाता था कि किसे सबसे पहले रंगना है। बचपन के वे दोस्त बहुत शरारती थे। त्योहार से पहले ही होली खेलने की प्लानिंग शुरू हो जाती थी। रंगों की इतनी धूम रहती थी कि स्कूल का बस्ता और किताबें भी रंग में डूब जाती थीं।
रंगों के साथ घरों में महकते थे पकवान, मां-चाची मिलकर बनाती थीं गुजिया, लड्डू और पपड़ी
होली सिर्फ रंगों तक सीमित नहीं थी, बल्कि यह स्वाद और महक का भी त्योहार था। बुजुर्गों ने बताया कि त्योहार से पहले ही घरों में पकवान बनने शुरू हो जाते थे। दादी, मां, चाची और बड़ी बहनें मिलकर गुजिया, पपड़ी, लड्डू, और कई तरह के मीठे-नमकीन व्यंजन बनाती थीं। घर में त्योहार का माहौल पहले ही बन जाता था।
होली की सुबह होते ही घर के बड़े बुजुर्ग बच्चों को सरसों या नारियल का तेल लगाने को कहते थे, ताकि रंग आसानी से निकल जाए। लेकिन तब पक्के रंगों का दौर था, जो दो-तीन दिन तक शरीर से नहीं उतरते थे।
होलिका दहन में होती थी सामूहिक पूजा
बुजुर्गों ने बताया कि पहले होलिका दहन के लिए पूरे मोहल्ले के लोग मिलकर लकड़ियां और कंडे इकट्ठा करते थे। फिर सभी परिवार एक साथ पूजा के लिए आते थे। होलिका जलने के बाद देर रात तक लोग वहां बैठकर गीत गाते और गप्पें लगाते थे। छोटे बच्चे अंगारों पर आलू और चना भूनकर खाते थे।
होली खेलने के लिए पूरे मोहल्ले के लोग सुबह जल्दी तैयार हो जाते थे। उस समय किसी के चेहरे पर हिचक नहीं होती थी कि कोई रंग डालेगा या नहीं, बल्कि हर कोई होली की मस्ती में डूबा रहता था।
अब नहीं दिखती पहले जैसी होली, रंगों का रोमांच और पकवानों की खुशबू सिर्फ यादों में
बुजुर्गों ने अफसोस जताया कि अब वह बात नहीं रही। पहले की तरह टोलियां नहीं बनतीं, न ही होली से पहले पकवानों की खुशबू आती है। अब त्योहारों पर बाजार के पकवान खाए जाते हैं और लोग रंगों से बचने की कोशिश करते हैं। लेकिन उनके लिए होली का मतलब आज भी वही है- बचपन की वो बेफिक्री, दोस्तों की शरारतें और घरों में महकते स्वादिष्ट पकवान।